वैसे तो स्वतंत्र हिन्दुस्तान में तीन बार आपातकाल लगा, पहला आपातकाल 26 अक्टूबर 1962 में भारत-चीन युद्ध के समय घोषित हुआ, दूसरा आपातकाल 03 दिसम्बर 1971 को भारत-पाकिस्तान जंग के दौरान; इन दोनो इमरजेंसी या आपातकाल का देश के लोगों ने पूरी एकजुटता के साथ राष्ट्रवादी जुनून-जज्बे से स्वागत ही नहीं किया बल्कि सरकार और सुरक्षा बलों के हर फैसले के साथ कंधे से कंधे मिला कर खड़े रहें।
पर तीसरे आपातकाल का प्रमुख कारण 12 जून 1975 को इलाहाबाद हाई कोर्ट का वह ऐतिहासिक फैसला था, जिसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को चुनाव में भ्रष्ट आचरण अपनाने का दोषी करार देते हुए उनके लोकसभा चुनाव को निरस्त एवं 6 वर्षो तक चुनाव लड़ने से अयोग्य ठहराया गया था। 25 जून 1975 को आधी रात में लगा यह आपातकाल न किसी बाहरी हमले के कारण था ना किसी युद्ध के चलते। शुद्ध रुप से कांग्रेस एवं श्रीमती गांधी के सत्ता पर खतरे को टालने के लिए किया गया गुनाह था।
इमरजेंसी लगाने के साथ ही कांग्रेस ने चुनाव संबधी नियम-कानूनों को अपनी निजी जरुरतो के हिसाब से संशोधित कर डाला, श्रीमती इंदिरा गांधी की अपील को सुप्रीम कोर्ट में स्वीकार करवाया गया, ताकि इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा उनके रायबरेली संसदीय क्षेत्र से चुनाव रद्द किए जाने के फैसले को निष्प्रभावी किया जा सके। साफ है कि आपातकाल की घोषणा केवल कांग्रेसी सत्ता बचाने के लिए ही नहीं बल्कि इलाहबाद हाई कोर्ट के फैसले और सुप्रीम कोर्ट के अंतरिम फैसले का उलटना था, इसलिए इन फैसलों को पलटने वाला कानून ही नहीं लाया गया बल्कि इसका अमल भी पूर्व काल से लागू कर दिया। संविधान को संशोधित किया गया जिसके तहत राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, उपराष्ट्रपति और लोकसभा अध्यक्ष पर जीवन भर किसी अपराध को लेकर कोई मुकदमा नहीं चलाया जा सकता। इस संशोधन को राज्य सभा ने पारित भी कर दिया, लेकिन इसे लोकसभा में पेश नहीं किया गया। सबसे शर्मनाक तो संविधान का 42वां संशोधन था, इसके जरिए संविधान के मूल ढाँचे को कमजोर करने, उसकी संघीय विशेषताओं को ध्वस्त करने और सरकार के तीनों अंगों के संतुलन को बिगाड़ने की साजिश की गई थी।
इमरजेंसी के दौरान श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा संविधान की मूल आत्मा को बर्बाद करने का प्रयास बहुत बेशर्मी से किया गया। आपातकाल के पहले हफ्ते में ही संविधान के अनुच्छेद 14,21 और 22 को निलंबित कर दिया गया, ऐसा करके कांग्रेस सरकार ने कानून व संविधान की नजर में सबकी बराबरी, जीवन और संपत्ति की सुरक्षा की गारंटी और किसी की गिरफ्तारी के 24 घंटे के अन्दर उसे अदालत के सामने पेश करने के अधिकारों को खत्म कर दिया। जनवरी 1976 में अनुच्छेद 19 को भी निलंबित कर दिया गया, जिससे अभिव्यक्ति, प्रकाशन करने, संघ बनाने और सभा करने की आजादी को खत्म कर दिया गया ; राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (रासुका) में अपनी सुविधानुसार कई बार बदलाव किए, नजरबंदी को एक साल से अधिक तक बढाने का प्रावधान कर दिया गया। तीन हफ्ते बाद 16 जुलाई 1975 को इसमें पुन: बदलाव करके नजरबंदियों को कोर्ट में अपील करने के अधिकार से भी वंचित कर दिया गया। 10 अक्टूबर, 1975 के क्रूर संशोधन द्वारा नजरबंदी के कारणों की जानकारी कोर्ट या किसी को भी देने को जुर्म बना दिया गया।
25 जून 1975 को आधी रात में लगायी गयी इमरजेन्सी का तर्क दिया गया ‘‘भारत खतरे मे है”; दरअसल ‘‘इण्डिया इज इंदिरा, इंदिरा इज इण्डिया” में कांग्रेसी चापलूसों, चम्पुओं की जमात श्रीमती इंदिरा गांधी की कुर्सी के खतरे को भारत पर खतरा कह कर जोर-शोर से प्रचारित कर रही थी।
कांग्रेस का आपातकाल देश के लोकतंत्र के इतिहास का ऐसा बदनुमा दौर था जब सैकड़ो लोगों की जेल में मौत हुई, बर्बरता और सरकारी आतंक-अराजकता चरम पर थी, लोकतांत्रिक-संवैधानिक अधिकार खत्म कर दिए गये, विपक्ष के नेताओं, प्रमुख समाजसेवी संस्थाओं के लोगों को जेल की काल कोठरी में डाल दिया गया था, राजनैतिक-सामाजिक कार्यकर्ता, छात्र, पत्रकार जो भी कांग्रेस सरकार की तानाशाही हरकतों की आलोचना करते तो उन्हें राष्ट्रद्रोही करार दे कर गम्भीर अपराधिक धाराओं में या तो जेल भेज दिया जाता या खत्म कर दिया जाता था। संवैधानिक मूल्यों-मान्यताओं, वाणी-लेखनी की स्वतंत्रता सब कुछ कांग्रेसी आपातकाल की बन्धक बन गई थी। न्यायपालिका, कार्यपालिका, विधायिका का तानाशाही सल्तनत ने अपहरण कर लिया था। एक ऐसी डरावनी, भयानक तानाशाही जहां सांस लेने की इजाजत भी सत्ता के सिपहासलारों से लेनी पड़ती थी।
समाचार पत्र, फिल्में, समाचार ऐजेन्सियां, रेडियो सबकुछ ‘‘सेन्सर के सोटे” से घायल थे, बुद्धिजीवी-पत्रकार-लेखक या तो कांग्रेसी कवच पहनकर ‘‘इण्डिया इज इंदिरा,, कह रहे थे या जेल के सीखचों में थे। मीडिया पर तानाशाही नियंत्रण के लिए नया कठोर कानून बनाया गया। स्वतंत्र अखबारों की बिजली काट दी गई, जिन पत्रकारों-सम्पादकों ने सरकारी भाषा नहीं स्वीकार की उन्हें जेल भेज दिया गया। यही नहीं “किस्सा कुर्सी का”, "आंधी" जैसी फिल्मों पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। किशोर कुमार जैसे गायक को श्रीमती इंदिरा गांधी और कांग्रेस का स्तुतिगान न करने पर ‘‘ब्लैक लिस्ट” कर दिया गया। कई फिल्मी कलाकारो, निर्माताओं, लेखको को प्रताड़ित किया गया।
इस तानाशाही, बर्बर, जालिम माहौल के कारण देश के लोगों में आक्रोश दिन प्रतिदिन बढता जा रहा था, कांग्रेस के खिलाफ गुस्सा, नफरत का रुप ले चुका था। कोई सरकारी जीप अगर किसी गांव से गुजर जाती थी तो गांव का गांव खाली हो जाता था, इसी डर-भय ने बगावत का रुप ले लिया था, जेल में बन्द लोगों पर जुल्म और मौत की खबरें आग की तरह फैल रही थी। चौक-चौराहा-चौपाल इमरजेन्सी के जुल्म का गवाह बनने लगे थे।
जो लोग फरार थे वे जेल में बन्द लोगों के परिवारों के लिए अनाज, कपडे, दवाएं आदि का बंदोबस्त करते थे। कई लोकतंत्र सेनानी ऐसे थे जिनके घरों में कई-कई दिन चूल्हा नहीं जलता था। कांग्रेस द्वारा लोकतंत्र के इतिहास का यह शर्मनाक अपराध अनगिनत दर्दनाक कहानियों से भरपूर है। आपातकाल नौजवानों के नाखून निकालना, छात्रों के हाथ-पैर तोडकर अपाहिज बना देना, आंखों में राड डाल कर हमेशा के लिए रोशनी खत्म कर देना, सत्याग्रहियों और कार्यकर्ताओं को उनके भूमिगत सहयोगियों के नाम और ठिकानों का पता लगाने, के लिए रात भर सोने न देना, प्यासा रखना या घंटो भूखा रखने के बाद बहुत ज्यादा गन्दा खाना खिलाकर, घंटो एक पैर पर खडा रखना, हफ्तो-हफ्तों तक नंगे बदन किसी पेड़ में बांधकर सवालों की बौछार करते रहना। आपराधिक जुल्म की इम्तहा वाले यह कुछ दर्दनाक, शर्मनाक उदाहरण हैं। जिसने जम्हूरियत को ही नहीं जुल्म को भी शर्मिन्दा किया था।
ऐसी अनगिनत कहानियां हैं जो रोंगटे खडी कर देती हैं, सिर्फ लोकतंत्र की हत्या ही नहीं बल्कि जम्हूरियत के लिए आवाज उठाने वालों को भी खामोश करने की खतरनाक आपराधिक साजिश से भरा है, इमरजेन्सी का काला इतिहास। यह तो देश की लोकतंत्र के प्रति आस्था और तानाशाही के प्रति नफरत का नतीजा था, कि लोगों ने कांग्रेस के सामन्ती आतंक भरे आपातकाल के खिलाफ बगावत की और लोकतंत्र और संविधान को बचा लिया।
पर सवाल आज भी खड़ा है कि क्या कांग्रेस “सामंती विरासत-तानाशाही सियासत के संस्कारो” से मुक्त हो पाई है ?
इमरजेंसी के इस र्बबर, सामंती तानाशाही इतिहास की जानकारी हमें अपनी नयी पीढी को पाठ्य पुस्तकों के जरिए देना जरुरी हैं। “यह तानाशाही के खिलाफ संदेश और लोकतंत्र की ताकत का सार्थक सबक होगा।“